Jagdalpur: बस्तर का ऐतिहासिक और विश्व प्रसिद्ध 75 दिवसीय दशहरा पर्व अपने आप में एक अद्वितीय परंपरा का प्रतीक है। इस पर्व का मुख्य आकर्षण विशाल दो मंजिला फूल रथ की परिक्रमा है, जिसका शुभारंभ हो चुका है। रथ परिक्रमा की इस रस्म में बस्तर के आदिवासी समुदाय द्वारा अपने हाथों से बनाए गए पारंपरिक औजारों का उपयोग किया जाता है। विशालकाय लकड़ी का यह रथ, जो लगभग 50 फीट ऊंचा और कई टन वजनी होता है, पूरे शहर में घुमाया जाता है। इस रस्म के दौरान रथ पर माई दंतेश्वरी के छत्र को प्रतिष्ठित किया जाता है, जिससे धार्मिक आस्था और परंपरागत मान्यताओं का संचार होता है।
बस्तर दशहरा की यह परंपरा 1410 ईस्वी में तत्कालीन महाराजा पुरषोत्तम देव द्वारा शुरू की गई थी। महाराजा पुरषोत्तम ने जगन्नाथ पुरी जाकर ‘रथपति’ की उपाधि प्राप्त की थी, जिसके बाद से इस अद्भुत परंपरा की शुरुआत हुई और यह परंपरा अनवरत रूप से आज तक चली आ रही है। देशभर में अनूठे इस रथ पर्व को देखने के लिए हर साल हजारों की संख्या में पर्यटक बस्तर पहुंचते हैं, जहां वे इस अद्वितीय सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजन का हिस्सा बनते हैं।बस्तर के इतिहासकारों के अनुसार, 1400 ईसवीं में राजा पुरषोत्तम देव द्वारा इस महोत्सव की शुरुआत की गई। नवरात्रि के तीसरे दिन से लेकर अष्टमी तक, मांई जी की छत्र की परिक्रमा लगाने वाले इस भव्य रथ को “फुल रथ” के नाम से जाना जाता है। यह रथ मांई दंतेश्वरी के मंदिर से मांई जी के छत्र और डोली को लेकर आता है।
रथ की परिक्रमा की शुरुआत बस्तर पुलिस के जवानों द्वारा बंदूक से सलामी देने के साथ होती है, जो इस आयोजन की गरिमा को बढ़ाती है। इस रथ की ऊँचाई लगभग 50 फीट है और इसका वजन कई टन है। इसे खींचने के लिए सैंकड़ों आदिवासी एकत्रित होते हैं, जो एकजुट होकर इस रथ को चलाते हैं। यह आयोजन न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि बस्तर की संस्कृति और समुदाय की एकता का भी जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करता है।